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** हेलो जिन्दगी * * तुझसे हूँ रु-ब-रु * * ले चल जहां * *

Sunday, April 26, 2015

लक्ष्मी


प्रिय सखी अद्भुत सृजनशीलता की क्षमता से परिपूर्ण कलाकारा   "चंचला इंचलकर सोनी " जी की एक पेंटिंग पर मेरे कुछ भाव
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ललाई युक्त नन्हे पांव
जब उतरे प्रागण में
 भोर की ललिमा ने स्याह हुए अम्बर को
फिर से लौटा दिया उसका रंग
चिड़ियों की चहचहाट से मुकाबिला करती
आरती की सुमधुर घण्टियों सी
पूरे  घर को तरंगित करती
बचपन से ही नजरो की परिधि में पलती  बढ़ती
संस्कार के बीजो को आत्मसात  करती
जब- जब सपनो के इन्द्रधनुष पर
उन ललाई लिए कोमल पांवो से  चलने  की कोशिश करती
तब तब सूरज आकर समेट रख देता  इन्द्रधनुष
की कहीं लक्ष्मी में पैरो की ललाई काली न हो जाये
उसके सपने चोरी न हो जाये
छुपा  देता उसे दुनिया की नजरो से दूर
तिजोरी में कैद करके
की इंद्रा धनुष की पालकी बना कर
उसके सपनो की  झालरों से सजा कर
गोधूलि में भेजेगा उसे अंबर पर बने चाँद के  घर
जहाँ  चांदनी बन कर एक छत्र राज करेगी
वो धरा अंबर पर
फिर एक एक सपने को चमका चमका कर
टाँकती जाएगी अंबर पर
बड़ी खुश होती  वो ये सुन कर सोच कर
और जतन  से बचाये रखना चाहती ललाई
और उकेरने लगती सपनो को
हथेलियों में हिना से
सुना है उसने हिना का रंग जितना सुर्ख होगा
अंबर पर बने चाँद के घर में
उसके सपने उतनी जल्दी साकार होंगे
आखिर विदा होती है वो
पैरो में माहवार ,माथे पर बिंदिया
और हाथो में रचे अपने सुर्ख सपनो के साथ
इंद्रधनुषी पालकी में
हाँ ! पा लिया चाँद को !!
अम्बर भी उसकी उसकी मुट्ठी में है !!
पर उसके सपनो को समेटे
 उसकी मेहँदी का रंग
फीका होने लगा है
चाँद के सपने को चमका चमका कर
अंबर पर टाँकते टाँकते
हाँ ! आज भी वो लक्ष्मी है
उसके पैरो में लगे आलता  का रंग फीका न पड़
इसलिए छुपा के रख देता है चाँद
उसे ड्योढ़ी के भीतर
प्रथाओं की तिजोरी में ।












Saturday, April 25, 2015

प्रीत का मंदिर


संजो के रख लिए
मन के पन्नो पर
गाहे -बेगाहे कहे गए
सच्चे या की झुटे
वो प्रीत पगे शब्द
उन्हें जोड़ जोड़
बनाती रहती हूँ
 प्रीत का मंदिर
कभी फुर्सत हो तो आना
मेरे इस मंदिर में
तुम्हारे चरणो की वाट  जोह रही है ये
प्राण प्रतिष्ठा कर जाना

Wednesday, April 1, 2015

मेरी कविता




जब भावो का कलश भरता है
उद्वेलित  मन छलक पड़ता है
डूब जाते है शब्द और अक्षर
गुमसुम हो जाती है मेरी कविता |

संवेदनाओ के ज्वार से जूझे
टूटती ,बनती, ,घायल होती
ठगी ,बेबस  जब अंक में लौटी
रोती  लिपट मुझसे मेरी कविता |

मिथक ,रूढ़ियों से टकराती
नित नव परिभाषाये गढ़ती
कलंकिनी जब तमगा पाती
तब -तब लड़े मुझसे  मेरी कविता |

शब्दों ,छन्दो  से सजी धजी
सकुचाई नवोढ़ा सी चली
छूती  जब जब पिया का जी
लगती गुनगुनाने मेरी कविता ।











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