Thursday, November 13, 2014

अनबुझ प्यास



फिर बरसने को आतुर
कुछ बादल  घिरे है भरे भरे
हिम दुशाला ओढ़े मही
सहमी सहमी सी सिकुड़ रही
ये कैसी अनबुझ आस है !!!

पर्दानशीं कोई भेद रहा है
कोहरे की चादर गहरी
पिघलेंगे कभी ग्लेशियर
फिर निकलेगी गंगा कोई
ये कैसी अनबुझ प्यास है !!!

हुस्न का लुटेरा कोई
दिल की गलियो में घूम रहा
कोई भर दे कोई प्रीत का प्याला
रूप की नगरी ने है जो लूटा
ये कैसी अनबुझ तलाश है !!!

  




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