एक नज़र ..चलते चलते
Wednesday, March 25, 2015
उम्मीदों का मशाल
मेरे यकीन से यूँ टकरा रहे हो
वजूद अपना ही ठुकरा रहे हो ।
चले थे लेकर उम्मीदों का जो मशाल
बन कर आंधी उसी को बुझा रहे हो ।
कमी न तुममे कोई न कमी मुझमे है
फकत पत्थरो में खुदा तलाश रहे हो ।
मिलता नही किसी को आकाश पूरा
अपने हिस्से का यूँ ही लूटा रहे हो ।
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