है कैसी ये मजबूरी
तुम दिन को अगर रात कहो
रात कहते हम भी
गर दिन को मैं कहु दिन
तुम नाराज हो जाते हो
दिखने लगते हो दुनिया के नक़्शे में
हर वो जगह जहाँ अभी रात है
और मान लेती हु मैं तुम्हारी बात
तुम्हारी खुशियों की खातिर
दिन को रात समझ खो जाती हु
खयालो में ,.. सजाने लगती हु सपने
पलकें बंद कर लेती हूँ
उस रात की अनुभूती में
और तभी तुम चुटकी बजा देते हो
कहते हो "..पगली ..कहाँ खो गयी ..??
देखो कितना दिन निकल आया ..
और तुम अभी तक सो रहे हो ..!!!???
डाल देते हो असमंजस में मुझे
क्या कहूँ अब ..दिन या रात ..???
पता है मुझे - तुम कभी सहमत न होगे मुझसे
मुझे ही हर बार झुकना है
इसी तरह .. आ जायेगी साँझ
तब भी ...दोनों होंगे सही
दोनों गलत ,,सहमत ,,असहमत
इसी तरह उलझे हुए ...
तुम रात को देखते .... और मैं ..??!!
तुम्हारी रातों को देखते हुए
दिन के इन्तजार में .......