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Sunday, May 31, 2015
Thursday, May 28, 2015
Sunday, May 24, 2015
आरक्षण
#होराहाभारतनिर्माण
आरक्षण का कोढ़ देश को रुग्ण बना रहा । युवा पीढ़ी में हताशा भर रहा केवल वो ही नही इसका प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है देश तो लंगड़ा हो ही चूका। क्या इसके जिम्मेदार हम नही ? क्या हमारी ये जिम्मेदारी नही बनती की हम एक जुट हो इसके खिलाफ मुहीम छेड़े। मुझे लगता है ये मशाल ले कर हमें ही बढ़ना चाहिए आगे युवा पीढ़ी के पास बहुत काम है उन्हें अपना भविष्य संवारना है अभी। मेहनत करनी है वो अगर इसमें इन्वोल्व हो गये तो उनका भविष्यऔर भी अंधकारमय हो जायेगा । हम जैसे लोग जो अब अपनी जिदगी के उस पड़ाव पर है जहाँ हम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके और समय बिताने के लिए फेसबुक इत्यादि का सहारा लेते है प्रेम। अगन विरह पर कविताये रच रच के हमें ही अपने इस समय का सदुपयोग अपने होनहारो नौनिहालों को उनका हक़ दिलाने कइ लिये करना चाहिए चाहे लिख कर या कोई संस्था संगठन बना कर सडको पर उतर कर जैसे जो रास्ता मिले हमारी ये गलती सुधारनी हमें ही होगी ।
___/\___
दिनेश पारीक दिनेश पारीक की विचारणीय रचना
-----------
परीक्षा मैंने ही नहीं
मेरे पूरे परिवार ने दी थी
कुछ उम्मीदे भी साथ थी
हर बार की तरह ख्वाब भी वही
और परिणाम से निराशा
मुझे से ज्यादा परिवार को हुयी
दिलासा उन से ही मिली
कितनी बार जीत कर हारा हूँ
पता है उनको भी मुझे भी
मै न आज और न पहले
में हर बार % पर सोचता रहा
वो पिछड़ा पन इतराते रहे
परिणाम से कभी नहीं घबराया
पर अब लगता है इस आरक्षण
से मैं न जीत पाउँगा
मैं अब चुनाव नहीं कर पा रहा हूँ
की मुझे किस से जीतना ह
आरक्षण का कोढ़ देश को रुग्ण बना रहा । युवा पीढ़ी में हताशा भर रहा केवल वो ही नही इसका प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है देश तो लंगड़ा हो ही चूका। क्या इसके जिम्मेदार हम नही ? क्या हमारी ये जिम्मेदारी नही बनती की हम एक जुट हो इसके खिलाफ मुहीम छेड़े। मुझे लगता है ये मशाल ले कर हमें ही बढ़ना चाहिए आगे युवा पीढ़ी के पास बहुत काम है उन्हें अपना भविष्य संवारना है अभी। मेहनत करनी है वो अगर इसमें इन्वोल्व हो गये तो उनका भविष्यऔर भी अंधकारमय हो जायेगा । हम जैसे लोग जो अब अपनी जिदगी के उस पड़ाव पर है जहाँ हम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके और समय बिताने के लिए फेसबुक इत्यादि का सहारा लेते है प्रेम। अगन विरह पर कविताये रच रच के हमें ही अपने इस समय का सदुपयोग अपने होनहारो नौनिहालों को उनका हक़ दिलाने कइ लिये करना चाहिए चाहे लिख कर या कोई संस्था संगठन बना कर सडको पर उतर कर जैसे जो रास्ता मिले हमारी ये गलती सुधारनी हमें ही होगी ।
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दिनेश पारीक दिनेश पारीक की विचारणीय रचना
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परीक्षा मैंने ही नहीं
मेरे पूरे परिवार ने दी थी
कुछ उम्मीदे भी साथ थी
हर बार की तरह ख्वाब भी वही
और परिणाम से निराशा
मुझे से ज्यादा परिवार को हुयी
दिलासा उन से ही मिली
कितनी बार जीत कर हारा हूँ
पता है उनको भी मुझे भी
मै न आज और न पहले
में हर बार % पर सोचता रहा
वो पिछड़ा पन इतराते रहे
परिणाम से कभी नहीं घबराया
पर अब लगता है इस आरक्षण
से मैं न जीत पाउँगा
मैं अब चुनाव नहीं कर पा रहा हूँ
की मुझे किस से जीतना ह
Sunday, May 10, 2015
माँ
माँ को नमन करते हुए कुछ पंक्तियाँ
हुयी बीमार
मिलने आई माँ
जो खुद लडखडाती रहती
घुटनों के दर्द की मारी
मेरा माथा सहलाती
हाथ पैर दबाती
डांटती रही मुझे
कुछ खाती पीती नही
अपने शरीर का ध्यान नही रखती
काम ,बच्चे और नेट बस
शरीर नहीं रहेगा कोई न पूछेगा
बगैरह बगैरह जाने क्या क्या कहती रही
मैं सुनती रहती हूँ
अच्छा लगता उनका बोलते जाना
क्युकी यही वो पल होता है
जब वो कुछ बोलती है अपने मन का
खुल कर
याद आते है वो दिन
जब पाला था खुद भूखे रह कर चार चार बच्चो को
पापा अक्सर काम से शहर से बाहर होते
बच्चो की पढाई ,बीमारी सबसे अकेली जूझती
घर के सारे काम अकेले निपटाती
कोई बच्चा बीमार पड़ जाये
बेखटकेअकेले सुनसान इलाके से गुजरती
रातो को लम्बी लाइनों बैठ डॉक्टर को दिखाती
रात रात भर जाग सेवा करती
सुबह फिर काम में जुट जाती
उस समय न गैस थे न कुकर
आज हम है सारी सुख सुविधा होते हुए भी परेशां रहते
कभी बच्चो पे चीखते है
कभी पति देव पर चिल्लाते है
नहीं है वो धैर्य हममे- बिना काम थके रहते
आज भरे पुरे परिवार वाली
सुख सुविधायो से परिपूर्ण घर वाली माँ
अब बीमार ज्यादा रहती है
पर उत्साह उमग में कोई कमी नही
बस भरे पुरे परिवार का अकेलापन कचोटता है कभी कभी
यहाँ कोई रिश्तेदार भी नही शहर बदलने के कारन
तो कभी किसी से फोन में बात कर
कभी मेरे पास आकर कोशिश करती है
कोई न मिला तो पिता जी पे झक झक कर
कभी मेरे पास आकर
कोशिश करती है
अपना बातो को बांटने की
अब नेट चलाना भी सीख लिया है
थोडा समय इधर बीता लेती है
कहीं जाना हो मुझे
बस एक काल करना होता है
चल पड़ती मेरे साथ लड़खड़ाते कदमो से
सोचते होंगे आप
कैसी स्वार्थी हूँ मैं
मैं सोचती हूँ ये सारे दिन झंझटो में उलझी रहती है
घर में बंधी रहती है किसी को जरुरत हो न हो
पर इन्हें लगता इनके बिना घर का काम न होगा
मंदिर जाने का ढकोसला पसंद नही
पार्क कोई साथ में जाता नही
इसलिए ले जाती घसीट घर से बाहर थोडा ताज़ी हवा खिलाने
घर वाले भी खुश
मैया भी बाहर निकल खुश
पर भ्रम न छोडती की इसके बिना घर न चलेगा
कोई भी माँ ये भ्रम नही छोडती ....
हुयी बीमार
मिलने आई माँ
जो खुद लडखडाती रहती
घुटनों के दर्द की मारी
मेरा माथा सहलाती
हाथ पैर दबाती
डांटती रही मुझे
कुछ खाती पीती नही
अपने शरीर का ध्यान नही रखती
काम ,बच्चे और नेट बस
शरीर नहीं रहेगा कोई न पूछेगा
बगैरह बगैरह जाने क्या क्या कहती रही
मैं सुनती रहती हूँ
अच्छा लगता उनका बोलते जाना
क्युकी यही वो पल होता है
जब वो कुछ बोलती है अपने मन का
खुल कर
याद आते है वो दिन
जब पाला था खुद भूखे रह कर चार चार बच्चो को
पापा अक्सर काम से शहर से बाहर होते
बच्चो की पढाई ,बीमारी सबसे अकेली जूझती
घर के सारे काम अकेले निपटाती
कोई बच्चा बीमार पड़ जाये
बेखटकेअकेले सुनसान इलाके से गुजरती
रातो को लम्बी लाइनों बैठ डॉक्टर को दिखाती
रात रात भर जाग सेवा करती
सुबह फिर काम में जुट जाती
उस समय न गैस थे न कुकर
आज हम है सारी सुख सुविधा होते हुए भी परेशां रहते
कभी बच्चो पे चीखते है
कभी पति देव पर चिल्लाते है
नहीं है वो धैर्य हममे- बिना काम थके रहते
आज भरे पुरे परिवार वाली
सुख सुविधायो से परिपूर्ण घर वाली माँ
अब बीमार ज्यादा रहती है
पर उत्साह उमग में कोई कमी नही
बस भरे पुरे परिवार का अकेलापन कचोटता है कभी कभी
यहाँ कोई रिश्तेदार भी नही शहर बदलने के कारन
तो कभी किसी से फोन में बात कर
कभी मेरे पास आकर कोशिश करती है
कोई न मिला तो पिता जी पे झक झक कर
कभी मेरे पास आकर
कोशिश करती है
अपना बातो को बांटने की
अब नेट चलाना भी सीख लिया है
थोडा समय इधर बीता लेती है
कहीं जाना हो मुझे
बस एक काल करना होता है
चल पड़ती मेरे साथ लड़खड़ाते कदमो से
सोचते होंगे आप
कैसी स्वार्थी हूँ मैं
मैं सोचती हूँ ये सारे दिन झंझटो में उलझी रहती है
घर में बंधी रहती है किसी को जरुरत हो न हो
पर इन्हें लगता इनके बिना घर का काम न होगा
मंदिर जाने का ढकोसला पसंद नही
पार्क कोई साथ में जाता नही
इसलिए ले जाती घसीट घर से बाहर थोडा ताज़ी हवा खिलाने
घर वाले भी खुश
मैया भी बाहर निकल खुश
पर भ्रम न छोडती की इसके बिना घर न चलेगा
कोई भी माँ ये भ्रम नही छोडती ....
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