नारी हो तुम हो सृजनहार
देव भी तरसे जिसकी कोख को
ऐसा अनुपम हो उपहार
जप तप पूजा व्रत तुमसे ही
तुमसे ही है सब त्यौहार
भक्ति,शक्ति ,क्षमा, प्रेम तुम
तुमसे ही सृष्टि का आधार
रूढ़ि ,परंपरा , कुरीति के बंधन
सदियों की इन वर्जनाओं पर
नव चेतना का प्रहार भी तुम
बदल रहा युग तुम भी बदल रही
रूप सौंदर्य का प्रतिमान
स्वाबलंबन का गहना पहन
आत्मसम्मान की बिंदी लगा
शिक्षा की चूड़ी पहन
संकोच का घूंघट हटा
कर रही हो तुम नव श्रृंगार ।
पर सुनो ठहरो जरा
यात्रा नहीं है यह इतनी आसान
पुरुषत्व को आत्मसात करते
नही बन जाना तुम संपूर्ण पुरुष
खो जाएगा जो नारीत्व
सृष्टि हो जाएगी कठोरतम ,कुरूप
हे नारी तुम सृजनहार हो मां हो
बचाएं रखना तुम नारी की कोमलता
और उड़ेल देना भविष्य के गर्भ में
जहां से जन्म लेंगे स्त्रैण पुरुष
बचा लेना धरती बचा लेना सृष्टि
है दायित्व ये तुम्हारे ही हाथ
तुम लाख वेश बदलना पर
बदलना नहीं आत्मा ।