.

.
** हेलो जिन्दगी * * तुझसे हूँ रु-ब-रु * * ले चल जहां * *

Sunday, December 20, 2015

सांता अंकल अब आ भी जाओ

बाल कविता लिखना थोड़ा कठिन कार्य है दिसम्बर २०१३ में एक छोटा सा प्रयास किया था मैंने बाल कविता लिखने का कितनी सफल हुयी हूँ ये तो आप सभी आदरणीय मित्रो एवं गुरुजनो की समालोचना ही बताएगी। यहाँ में आपके साथ इस कविता का विडिओ जो मैंने मेरे पुत्र सिद्धार्थ अग्रवाल की मदद से बनाया है साझा कर रही हूँ निःसंकोच त्रुटियाँ बता कर मेरा मार्गदर्शन करें  __/\__
यू ट्यूब  पर विडिओ का लिंक :-
https://www.youtube.com/watch?v=MJxT7SJLIjs

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सांता अंकल अब आ भी जाओ
______________________________________
सांता अंकल अब आ भी जाओ
और न हमें इन्तजार करवाओ
विश की लिस्ट है लम्बी चौड़ी
जल्दी से आ कर ले जाओ |

मम्मी के लिए छुटियाँ लाना
पापा के लिए प्रमोशन लाना
भैया के लिए नौकरी लाना
छुटकी के लिए गुडिया लाना |

पिछले बरस जो बैग दिया था
उड़ने लगी है उसकी चिन्दियाँ
 फ्रेंड्स लाते हैं कार्टून वाले बैग्स
मुझको तुम सिंपल ही ला देना |

चाँद सितारे मुझको चिढाते
पर्वत नदियाँ मुझको बुलाते
परियो से भी मिलना मुझको
अपनी स्लेज में मुझे घुमाना |

सांता अंकल अब आ भी जाओ ---

sunita agrwal "neh "  dec.2013

video prasentation  19/12/2015

https://www.youtube.com/watch?v=MJxT7SJLIjs

Wednesday, September 9, 2015

बदल गया है दिल मेरे शहर का …।


बदल गया है  दिल मेरे  शहर  का   …।
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मेरा शहर
ट्रेफिक से लदी -फदी
चिल्ल्पों करती
गालियां बचपन की
रेड लाइट -स्टॉप
येलो लाइट -बी रेडी
ग्रीन लाइट -गो
से  अनजान
आगे निकलने की होड़ में
टकराते लोग
सुसंस्कृत भाषा में
माँ , बहन के रिश्तो से
एक दूजे को नवाजते लोग
बढ़ती जो बात
बातों -बातों में
जूतम पैजार
किरिया करम
अगली पिछली पीढ़ियों का
करते लोग
अचानक स्फूर्त
अभी तक  जो
उठा रहे लुफ्त
थोड़ा ठहर
गुजरते लोग
बीच बचाव करते
कभी इस पर
कभी उस पर
हाथ आजमाते
शांति ,शान्ति का नारा  लगा
चिचियाते लोग
 सुलह का सेहरा
हर कोई धरे माथे
एक दूजे को गले
मिलवाते लोग
नहीं मिले -
संवेदनाओ से भरे
वे  संकीर्ण पथ
अब हो  गए है चौड़े
सुन्दर पुलों से आवृत
 दिखते है अब
एक दूजे अनजान
 क्षण क्षण को थामे
अपनी हो धुन में
भागते लोग
बरसो बाद जो मिली
लगने लगा है बदला बदला
मेरा शहर
हाँ बदल गया है साथ ही
 दिल शहर  का   …।

   









Tuesday, September 1, 2015

रिश्ता


करने लगा है  बात   आँखों में आँख डाल
 आँचल में छिपने वाला  शेर  हो चला है ।

निकाल देता है वर्षा को चाहे जब घर से
रुख आसमान का क्यों कड़ा हो चला है ।

निभ गया दो दिन तो जश्न मनाने लगे
रिश्ता भी फेविकोल का एड हो चला है ।

रख आया है दीपक रात चौराहे पर
था इंसान अब मसीहा हो चला है ।

Sunday, August 16, 2015

मुक्ति ,आजादी ,स्वतंत्रता विषय पर आधारित वर्ण पिरामिड



वर्ण पिरामिड
जो

हुये
कुर्बान
देश हित
श्रद्धा सुमन
करता अर्पण
लहराता तिरंगा
**************

दी
मुक्ति
पहना
हाथ चूड़ी
पैर नुपुर
स्वर्णिम बेड़ीयाँ
छली जाती नारीयाँ


Tuesday, August 4, 2015

चलो आज पुरानी धूल भरी गलियों में


चलो आज  पुरानी धूल भरी गलियों में

बचपन की पीठ पर धौल एक जमाये

अम्मा  के  पल्लू से पोंछे फिर हाथ
 आसमां को मुट्ठी में फिर बांध लाये

अब्बा का चश्मा  छुपा दे कहीं पर
आँखों  में उनकी सितारे भर आयें

उड़ाये पतंग फिर सपनो की डोर बाँध
आजादी का चलो जश्न यूँ  मनाये

नाचे बरसात में छई छपाक छई
कागज की कश्ती को छाता उढ़ाये

चुरा लाये मनीप्लांट पडोसी  के घर से
ख्वाहिशो की अपनी फेहरिस्त बनाये

सोया मोहल्ला एक पटाखा चलाये
चलो न   फिर से हम  बच्चे बन जाए







Wednesday, July 29, 2015

वर्ण पिरामिड -ग्राम


ये
धूप
 चाँदनी
 हरीतिमा
 डसे भुजंग
पाश्चात्य लहर
नगरो का विस्तार   |


 वो
 खेत
 रहट
 पनघट
परम्पराएँ
 बैठक सजाती
 तस्वीरों में जिन्दा है ।

Friday, July 24, 2015

प्रेमसाधना,यादें

प्रेमसाधना
---------------
हद से गुजर जाते है 
जब ख्यालो में तुम्हारे
गूंगे हो जाते है अलफ़ाज़
छिप जाते है गहराई में
कही गहरे सागर में
की डाले न विध्न
कोई आवाज़
इस प्रेम साधना में

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यादें
-------
यादें नही
गेसुओं में उलझी
जल की नाजुक बूँदें
की
झटक दूँ
और बिखर जाएँ


Sunday, July 19, 2015

काल कोठरी



कालकोठरी
------------------
जाने क्यों खोल आई थी
काल कोठरी की
जंग लगी जंजीरों को
थरथराने लगी है
सजायाफ्ता अभिलाषायें
बाहर की दम घोटू हवा
इन्हे रास नही आती
रौशनी तन जलाती  है
फांसी के इन्तजार में कटती जिंदगी को
 तड़पती मौत की सजा दे आई हूँ




Sunday, June 28, 2015

दोहे - सावन ,साजन



दोहे एक प्रयास
____________

१) सावन बरसा झूम के , खिले शाख पर बौर ।
   सूखा  आँगन "नेह " का , वृद्धाश्रम अब ठौर ॥
२) नैना बरसे दिवस निशि , बाँझ कहे जो कोय ।
   कभी न सूखे मेह से , बीज अंकुरित होय । ।
३ ) पिया- पिया जपे मन ये ,भँवरे सा मँड़राय ।
   "नेह" न मीरा साधिका,  मोहन कैसे पाय ।
४) पिया प्रवासी कर रहे ,मैमन के सँग रास  ।
    "नेह " विरहिनी खोलती , चन्द्र  देख उपवास ॥ 

Friday, June 26, 2015

मोमबत्तियां



क्षणिका
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मोमबत्तियां
-------------------------

जल उठती है
मोमबत्तियां
हर हादसे के बाद
पर मिटा नहीं पाती  अँधेरा
जला  नही पाती पट्टी
न्याय की देवी की आँखों पर बँधी
पिघला नही पाती
इंसानियत की  धमनी में जम चुके
रक्त के थक्के
 हताश,बुझी  मोमबत्तियां
करने लगती है इन्तजार
फिर
 किसी कली के मसले जाने का..



Wednesday, June 24, 2015

इच्छाए , . भूख ,कतरन



क्षणिकाएँ
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१. इच्छाए
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इच्छाओ की कलम से
लिखी किताब जिंदगी की
भरती  नही
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२. भूख
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भूख
बन जाये इबादत
या की हवस
 तृप्त न होती
****************
३. कतरन
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उनसे पूछिये
कतरनों का मोल
जिनके हिस्से आती हैं
उतरन केवल
***************

Sunday, June 21, 2015

पिता …


पिता …
यह शब्द सुनते ही मन में एक गर्व , आत्मविस्वास और सुरक्षा का अहसास भर जाता है । पिता मेरे लिए एक विचार ,मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा  है।

 मेरी ये रचना केवल मेरे जन्म दाता  पिता को नही वरन पिता के रूप में जिन चार लोगो से में प्रभावित हुयी या जिनकी छाप कही मेरे अंदर मैं  महसूस करती हु उन सभी को समर्पित है  ।पह्ले मेरे पिता जी ,दूसरे मेरे ससुर जी तीसरे मेरे नाना जी और चौथे मेरे जीवन साथी :)
-------------------------
पिता …
सिर्फ जन्मदाता नही
सिर्फ पालनकर्ता नही
सिर्फ एक शब्द नही
एक सम्पूर्ण विचार होता है
जो कही बच्चो में पलता है
पिता …
 निरंतर बहती नदी नही
धीर गंभीर  सागर भी नही
अटल खड़ा  पर्वत ही नही
एक सम्पूर्ण सृष्टि होता है
समयानुसार रूप बदलता है
पिता …
कभी निरंकुश राजा वो
कभी परियों का शहजादा
कभी विदूषक कभी सखा वो
आदर्श , संस्कार  के बीज बोता  वो
आत्मविस्वास बन साथ रहता
 पिता … केवल वृक्ष नही
बीज भी  वही होता है







Sunday, May 31, 2015

बेवफा

मुक्तक एक प्रयास
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किन रिश्तों की अब वो बात करते हैं
जिन्हे बाजार में नीलाम करते है
सितम सह उनके हम जो मुस्करा दिये
बेवफा कह डाला कमाल करते हैं  ।


अंतिम कश


क्षणिका
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बेबस
देखता रहा
टकटकी लगाये
छलकती ,ममतामयी आँखें
दम तोड़ती
पिता की अभिलाषाएं
धीरे -धीरे
धुएं के छल्लो में
 विलीन होते
जिंदगी लगा चुकी थी
अंतिम कश

Thursday, May 28, 2015

बादल उत्पाती

क्षणिका
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ओ हवाओ

अब तो गति लो
बादल उत्पाती
चले गाँव पिया के
मोड़ दो रुख
दे दो पता
मेरे घर का

Sunday, May 24, 2015

आरक्षण

‪#‎होराहाभारतनिर्माण‬
आरक्षण का कोढ़ देश को रुग्ण बना रहा । युवा पीढ़ी में हताशा भर रहा केवल वो ही नही इसका प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ता है देश तो लंगड़ा हो ही चूका। क्या इसके जिम्मेदार हम नही ? क्या हमारी ये जिम्मेदारी नही बनती की हम एक जुट हो इसके खिलाफ मुहीम छेड़े। मुझे लगता है ये मशाल ले कर हमें ही बढ़ना चाहिए आगे युवा पीढ़ी के पास बहुत काम है उन्हें अपना भविष्य संवारना है अभी। मेहनत करनी है वो अगर इसमें इन्वोल्व हो गये तो उनका भविष्यऔर भी अंधकारमय हो जायेगा । हम जैसे लोग जो अब अपनी जिदगी के उस पड़ाव पर है जहाँ हम अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके और समय बिताने के लिए फेसबुक इत्यादि का सहारा लेते है प्रेम। अगन विरह पर कविताये रच रच के हमें ही अपने इस समय का सदुपयोग अपने होनहारो नौनिहालों को उनका हक़ दिलाने कइ लिये करना चाहिए चाहे लिख कर या कोई संस्था संगठन बना कर सडको पर उतर कर जैसे जो रास्ता मिले हमारी ये गलती सुधारनी हमें ही होगी ।
___/\___
दिनेश पारीक दिनेश पारीक की विचारणीय रचना
-----------
परीक्षा मैंने ही नहीं
मेरे पूरे परिवार ने दी थी
कुछ उम्मीदे भी साथ थी
हर बार की तरह ख्वाब भी वही
और परिणाम से निराशा
मुझे से ज्यादा परिवार को हुयी
दिलासा उन से ही मिली
कितनी बार जीत कर हारा हूँ
पता है उनको भी मुझे भी
मै न आज और न पहले
में हर बार % पर सोचता रहा
वो पिछड़ा पन इतराते रहे
परिणाम से कभी नहीं घबराया
पर अब लगता है इस आरक्षण
से मैं न जीत पाउँगा
मैं अब चुनाव नहीं कर पा रहा हूँ
की मुझे किस से जीतना ह

Sunday, May 10, 2015

माँ

माँ को नमन करते हुए कुछ पंक्तियाँ

हुयी बीमार
मिलने आई माँ
जो खुद लडखडाती रहती
घुटनों के दर्द की मारी
मेरा माथा सहलाती
हाथ पैर दबाती
डांटती रही मुझे
कुछ खाती पीती नही
अपने शरीर का ध्यान नही रखती
काम ,बच्चे  और नेट  बस
शरीर नहीं रहेगा कोई न पूछेगा
बगैरह बगैरह जाने क्या क्या कहती रही
मैं सुनती रहती हूँ
अच्छा लगता उनका बोलते जाना
क्युकी यही वो पल होता है
जब वो कुछ बोलती है अपने मन का
खुल कर
याद आते है वो दिन
जब पाला था खुद भूखे रह कर चार चार बच्चो को
पापा अक्सर  काम से शहर से बाहर होते
बच्चो की पढाई ,बीमारी सबसे अकेली जूझती
घर के सारे काम अकेले निपटाती
कोई बच्चा बीमार पड़ जाये
बेखटकेअकेले सुनसान इलाके से गुजरती
 रातो को लम्बी लाइनों बैठ  डॉक्टर को दिखाती
रात रात भर जाग सेवा करती
सुबह फिर काम में जुट जाती
उस समय न गैस थे न कुकर
आज हम है सारी  सुख सुविधा होते हुए भी परेशां रहते
कभी बच्चो पे चीखते है
कभी पति देव पर चिल्लाते है
नहीं है वो धैर्य हममे- बिना काम थके रहते
आज भरे पुरे परिवार वाली
सुख सुविधायो से परिपूर्ण घर वाली माँ
अब बीमार ज्यादा रहती है
पर उत्साह उमग में कोई कमी नही
बस भरे पुरे परिवार का अकेलापन कचोटता है कभी कभी
यहाँ कोई रिश्तेदार भी नही शहर बदलने के कारन
तो कभी किसी से फोन में बात कर
कभी मेरे पास आकर कोशिश करती है
कोई न मिला तो पिता जी पे झक झक कर
कभी मेरे पास आकर
कोशिश करती है
अपना बातो को बांटने की
अब नेट चलाना भी सीख  लिया है
थोडा समय इधर बीता लेती है
कहीं जाना हो मुझे
बस एक काल करना होता है
चल पड़ती  मेरे साथ लड़खड़ाते कदमो से
सोचते होंगे आप
कैसी स्वार्थी हूँ मैं
मैं सोचती हूँ ये सारे  दिन झंझटो में उलझी रहती है
घर में बंधी रहती है किसी को जरुरत हो न हो
पर इन्हें लगता इनके बिना घर का काम न होगा
मंदिर जाने का ढकोसला पसंद नही
पार्क कोई साथ में जाता नही
इसलिए ले जाती घसीट घर से बाहर थोडा ताज़ी हवा खिलाने
घर वाले भी खुश
मैया भी बाहर निकल खुश
पर भ्रम न छोडती की इसके बिना घर न चलेगा
कोई भी माँ ये भ्रम नही छोडती  ....





Sunday, April 26, 2015

लक्ष्मी


प्रिय सखी अद्भुत सृजनशीलता की क्षमता से परिपूर्ण कलाकारा   "चंचला इंचलकर सोनी " जी की एक पेंटिंग पर मेरे कुछ भाव
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ललाई युक्त नन्हे पांव
जब उतरे प्रागण में
 भोर की ललिमा ने स्याह हुए अम्बर को
फिर से लौटा दिया उसका रंग
चिड़ियों की चहचहाट से मुकाबिला करती
आरती की सुमधुर घण्टियों सी
पूरे  घर को तरंगित करती
बचपन से ही नजरो की परिधि में पलती  बढ़ती
संस्कार के बीजो को आत्मसात  करती
जब- जब सपनो के इन्द्रधनुष पर
उन ललाई लिए कोमल पांवो से  चलने  की कोशिश करती
तब तब सूरज आकर समेट रख देता  इन्द्रधनुष
की कहीं लक्ष्मी में पैरो की ललाई काली न हो जाये
उसके सपने चोरी न हो जाये
छुपा  देता उसे दुनिया की नजरो से दूर
तिजोरी में कैद करके
की इंद्रा धनुष की पालकी बना कर
उसके सपनो की  झालरों से सजा कर
गोधूलि में भेजेगा उसे अंबर पर बने चाँद के  घर
जहाँ  चांदनी बन कर एक छत्र राज करेगी
वो धरा अंबर पर
फिर एक एक सपने को चमका चमका कर
टाँकती जाएगी अंबर पर
बड़ी खुश होती  वो ये सुन कर सोच कर
और जतन  से बचाये रखना चाहती ललाई
और उकेरने लगती सपनो को
हथेलियों में हिना से
सुना है उसने हिना का रंग जितना सुर्ख होगा
अंबर पर बने चाँद के घर में
उसके सपने उतनी जल्दी साकार होंगे
आखिर विदा होती है वो
पैरो में माहवार ,माथे पर बिंदिया
और हाथो में रचे अपने सुर्ख सपनो के साथ
इंद्रधनुषी पालकी में
हाँ ! पा लिया चाँद को !!
अम्बर भी उसकी उसकी मुट्ठी में है !!
पर उसके सपनो को समेटे
 उसकी मेहँदी का रंग
फीका होने लगा है
चाँद के सपने को चमका चमका कर
अंबर पर टाँकते टाँकते
हाँ ! आज भी वो लक्ष्मी है
उसके पैरो में लगे आलता  का रंग फीका न पड़
इसलिए छुपा के रख देता है चाँद
उसे ड्योढ़ी के भीतर
प्रथाओं की तिजोरी में ।












Saturday, April 25, 2015

प्रीत का मंदिर


संजो के रख लिए
मन के पन्नो पर
गाहे -बेगाहे कहे गए
सच्चे या की झुटे
वो प्रीत पगे शब्द
उन्हें जोड़ जोड़
बनाती रहती हूँ
 प्रीत का मंदिर
कभी फुर्सत हो तो आना
मेरे इस मंदिर में
तुम्हारे चरणो की वाट  जोह रही है ये
प्राण प्रतिष्ठा कर जाना

Wednesday, April 1, 2015

मेरी कविता




जब भावो का कलश भरता है
उद्वेलित  मन छलक पड़ता है
डूब जाते है शब्द और अक्षर
गुमसुम हो जाती है मेरी कविता |

संवेदनाओ के ज्वार से जूझे
टूटती ,बनती, ,घायल होती
ठगी ,बेबस  जब अंक में लौटी
रोती  लिपट मुझसे मेरी कविता |

मिथक ,रूढ़ियों से टकराती
नित नव परिभाषाये गढ़ती
कलंकिनी जब तमगा पाती
तब -तब लड़े मुझसे  मेरी कविता |

शब्दों ,छन्दो  से सजी धजी
सकुचाई नवोढ़ा सी चली
छूती  जब जब पिया का जी
लगती गुनगुनाने मेरी कविता ।











Saturday, March 28, 2015

नारी - तुम हो सृजनहार


प्रिय सखी Chanchala Inchulkar Soni ji ki lajwab painting ko dekh kuchh vichar jo panpe smile emoticon 
नारी हो तुम 
हो सृजनहार
केवल सृजनहार
बीती सदियाँ कितनी
बदले युग
परिवर्तन है नियम सृष्टि का
विकासक्रम में
हाँ
बदल रही हो तुम भी
रूप , वेश ,विचार , दिशा ,दशा
पर
अंततः
तुम हो "माँ"
सृजनहार,
करुणामयी
ममता ,प्रेम,उर्जा का स्त्रोत
सृष्टि की डोर
चाह कर भी नही बदल सकती तुम
बीते चाहे सदियाँ
बीते कितने युग


Thursday, March 26, 2015

मंजिल बाकी है



अभी तो राह  देखी  है मंजिल  बाकी  है
ढली है नींव  ही  केवल मकान बाकी  है ||

 भीड़ में खो नहीं जाना सम्हल चल जरा
जश्न दीवानों का है ये अंजाम  बाकी  है||

 घूम आये मरू गुलशन  पर्वत पर है अब चढ़ना
कसमे बहुत खाली हमने अभी तकरार बाकी है ||

 मंदिर ,मस्जिद  या गिरिजा मिल ही जायेगा खुदा
जहर जीवन का पी ले जो वो  तलाश बाकी है ||

चौखट पर मेरे धूप नही है पनप रहे है बड़ पीपल
छाया बन पाएंगे ये कभी इन्तजार वो बाकी  है ||

खाली प्याले ,चाल सधी है ,प्यास भी मिटी नही ||
मिला जाए कोई साकीबाला अभी तो रात बाकी  है

Wednesday, March 25, 2015

उम्मीदों का मशाल




मेरे यकीन  से यूँ  टकरा  रहे हो
वजूद अपना ही ठुकरा रहे हो ।

चले थे लेकर उम्मीदों का जो मशाल
बन कर आंधी उसी  को बुझा रहे हो ।

कमी न तुममे कोई न कमी मुझमे है
फकत पत्थरो में खुदा तलाश रहे हो ।

मिलता नही किसी को आकाश पूरा
अपने हिस्से का यूँ ही लूटा रहे हो ।







Wednesday, March 18, 2015

एक चाहत




गुलाब - दोस्ती ,प्रेम
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सफ़ेद ,गुलाबी ,पीला
लाल ,काला
जाने कितने रँग
शाम होते होते मुरझाने लगते
नही लुभाते मुझे
रजनीगंधा - सौम्य ,सुरभित
-----------------------------
संत सी कोने में खड़ी
जैसे हो कान्हा की राधा
मंद मंद मुस्काती
ढलती साँसों के साथ
हवा में घुलती जाती
मिटने के बाद भी
छाया रहता है अस्तित्व
देर तलक
बन कर खुशबू
हरसिंगार -समर्पण
_____________
निशब्द रातो में
चुपचाप खिलना
क्षणिक जीवन
सर्वस्व समर्पण
फिर भी निष्कलंक
जैसे हो मीरा जोगन
चढ़ा दी जाती है भोर होते ही
प्रभु के चरणो में
जाने क्यों
प्यार है मुझे
 हरसिंगार और रजनी गंधा से
खो जाती हूँ इनमे
शायद एक तलाश है
रिश्तो में इनकी
शायद एक चाहत है
बिखर जाने की
और शायद  एक इन्तजार है
उस धरा का  जो फैलाये दामन …



Saturday, March 14, 2015

दरारें


दरारें
----------

उफ्फ्फ्फ़ !!!
ये दरारें
भर तो दिया था
रेता , सीमेंट  डाल
ओह !!!
जगह समतल नही हुयी
और
धब्बेदार
 महीन सी लकीर
जाती क्यों नही !!!

Wednesday, March 11, 2015

जब कहीं कुछ नही होता



जब कहीं कुछ नही होता
एक शुन्य पसरा होता है
अनंत ,असीम
उस शून्य में भी कुछ होता है
सतत गतिशील
 कुछ अस्फुट सी आवाजे
या कोई संगीत
निर्विकार भाव से
आस  पास के वातावरण में
तलाशती ……
अपना अस्तित्व ।



Wednesday, March 4, 2015

जीवन के रंग



अंबर ,धरती
फूल ,शूल,पल्लव
सिंधु ,अग्नि ,बादल
 छू कर इन्द्रधनुष
 रह जाता पारदर्शी ,बेरंग
जादूगर पवन
लुटाता प्रकृति पर
जीवन के रंग
क्या यही है --प्रेम ?
शायद यही है प्रेम ---- 

Tuesday, March 3, 2015

खोल दिए है बंधन मन के


लय , छंद, सुर, ताल से परे 

खोल दिए है बंधन मन के 
अब मौन है तुम हो मैं हूँ 
नीरव में उजास-समय साक्षी पुलके

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दिन महीने साल बीत तो जायेंगे
बिना तेरे हम चैन कहाँ पाएंगे
लम्हा लम्हा पुकारेगा दिल तुझको
आरजू में तेरी मिटते जायेंगे

Wednesday, February 18, 2015

कभी पुकारोगे हमें



जब भी नज्मों में आपकी हम ढलते है
बनकर खुशबू सहरा में हम बिखरते है ।

उड़ा  ले न जाए आँधियाँ ये धूल भरी
सीप बन तेरी आगोश में छुपे रहते है ।

जब  थामती है सागर सी बाँहें मुझको
कतरा- कतरा  तुझमे कहीं पिघलते है ।

छोड़ जायेंगे अपने कदमो के निशान
तपती रेत पर नंगे  पाँव  हम चलते है ।

एक बार मुड़कर कभी पुकारोगे हमें
आस ये ही लिए राहों  में ख़ड़े  रहते है ।



Friday, February 13, 2015

कुछ गीत अधूरे रहने दो



कुछ दर्द अधूरे रहने दो
कुछ सर्द हवाएँ बहने दो
सिलसिले  रहे यूँ ही चलते
कुछ हर्फ़ अधूरे रहने दो
******************
तेरी खामोश नजरो ने
एक सरगम सी छेड़ी है
छू  कर  मुझको बहकाती
 ये  बैरन हवा बसंती है
*******************
मेरे भावो का विस्तार हो तुम
मेरे गीतों का अभिसार हो तुम
छेड़ जाती है जब हौले से हवा
दहका बहका सा  रुखसार हो तुम
*********************

Thursday, February 12, 2015

लिखा है मौन

१ ) अनुबंध
--------------

फूल -तितली 

अम्बर -धरा 
सागर -नदी 
सृष्टि के आरंभ से 
बंधे है प्रीत की डोर
बिना अनुबंध

******************
२)
लिखा है मौन
----------------

 गीत कोई ग़ज़ल 
छंद ,काव्य ,महाकाव्य 
कोई लिखता खुदा 
प्रिया ,जानू, दिलरुबा
कोई लिखता अश्क
बेवफा, रक्कासा, बेरहम
हमने  प्रीत के सजदे
सर झुकाकर
लिखा दिया  है
मौन  !!!

*******************

३)
मीठा  सागर
--------------

नमकीन सिन्धु 

है कितना मीठा 
पूछो सरिता से 
उसने चखा है

Wednesday, February 4, 2015

क्षणिकाये -उगा सूरज , मेरे मन




क्षणिका १ -उगा सूरज
---------------------
लो
उगा सूरज
फ़ैल गया उजियारा
कुछ बड़े बड़े
बंद झरोखे वाले घर
सर उठाये खड़े है
प्रतीक्षित
आज भी
----------------------
क्षणिका २  - मेरे मन
---------------------
 जाओ
खोल दी मुट्ठी
उड़ो
अब
तुम्हारे हौसलों पर निर्भर है
बनोगे तितली
या
छुओगे गगन
मेरे मन





Wednesday, January 21, 2015

क्षणिकायें


क्षणिकायें
१)
हटात  चमकती
भुकभुकाती लौ
टूटता तारा
कौतुहलवश
इन्हें देखना और खुश होना
और बात होती है
इस अवस्था को  जीना
 जिन्दगी नासूर बना देती है
-------------------------------------
२)
जरुरी है
रहे कुछ प्यास अधूरी
पूर्णमासी
है आहट
अमावस्या की 

Friday, January 16, 2015

सूरज का इन्तजार


क्षणिका एक प्रयास -- सुझावों का स्वागत है :)

क्षणिका १)
अजब निराली
आँधियों की अदा
उड़ा ले जाती
धूल पुरानी
धर देती नई
*********
क्षणिका २)
जम गयी है
डल  झील
अब
नहीं चलते शिकारे
हसीं ख़्वाबों के
इन आँखों को है
सूरज का इन्तजार
**************




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