वो एक सिरा छूट सा गया
बंधे थे जिसके छोर हम
लगता है कुछ रीता भीतर
एक सन्नाटा शोर मचाता
चल रही आंधी बाहर भीतर
क्यों लगता है रूठीं बहारें
पतझड़ ने है पंख पसारे
रूठे रूठे अलफ़ाज़ तुम्हारे
जाने न हम कैसे मनाये
पर थामे बैठे है एक सिरा
विश्वास की डोर का
की.…....
कभी तुम आओगे
लपेटते हुए वो दूसरा सिरा
आज -- कल --या दस साल बाद
या फिर निकले दस जन्म भी
हैरान हूँ सब देखती हूँ
सब जानती हूँ
उन्मत्त लहर से तुम
कभी चाँद को छूने की कोशिश
कभी सूरज को पाने की जिद
कभी किनारे पर आ कर
सीपियों को छेड़ना
नन्हे मुन्ने घरौंदे को तोडना ,हसना
फिर भाग जाना तुम्हारा खिलखिलाते हुए
पर आँखे मूंदे हूँ
इन्तजार करती हूँ किनारो पर खड़ी
उस लहर का
जो .........
कभी तो आएगी मुझे भिगोने
आतुर सी
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