फिर बरसने को आतुर
कुछ बादल घिरे है भरे भरे
हिम दुशाला ओढ़े मही
सहमी सहमी सी सिकुड़ रही
ये कैसी अनबुझ आस है !!!
पर्दानशीं कोई भेद रहा है
कोहरे की चादर गहरी
पिघलेंगे कभी ग्लेशियर
फिर निकलेगी गंगा कोई
ये कैसी अनबुझ प्यास है !!!
हुस्न का लुटेरा कोई
दिल की गलियो में घूम रहा
कोई भर दे कोई प्रीत का प्याला
रूप की नगरी ने है जो लूटा
ये कैसी अनबुझ तलाश है !!!
कुछ बादल घिरे है भरे भरे
हिम दुशाला ओढ़े मही
सहमी सहमी सी सिकुड़ रही
ये कैसी अनबुझ आस है !!!
पर्दानशीं कोई भेद रहा है
कोहरे की चादर गहरी
पिघलेंगे कभी ग्लेशियर
फिर निकलेगी गंगा कोई
ये कैसी अनबुझ प्यास है !!!
हुस्न का लुटेरा कोई
दिल की गलियो में घूम रहा
कोई भर दे कोई प्रीत का प्याला
रूप की नगरी ने है जो लूटा
ये कैसी अनबुझ तलाश है !!!
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