गुलाब - दोस्ती ,प्रेम
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सफ़ेद ,गुलाबी ,पीला
लाल ,काला
जाने कितने रँग
शाम होते होते मुरझाने लगते
नही लुभाते मुझे
रजनीगंधा - सौम्य ,सुरभित
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संत सी कोने में खड़ी
जैसे हो कान्हा की राधा
मंद मंद मुस्काती
ढलती साँसों के साथ
हवा में घुलती जाती
मिटने के बाद भी
छाया रहता है अस्तित्व
देर तलक
बन कर खुशबू
हरसिंगार -समर्पण
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निशब्द रातो में
चुपचाप खिलना
क्षणिक जीवन
सर्वस्व समर्पण
फिर भी निष्कलंक
जैसे हो मीरा जोगन
चढ़ा दी जाती है भोर होते ही
प्रभु के चरणो में
जाने क्यों
प्यार है मुझे
हरसिंगार और रजनी गंधा से
खो जाती हूँ इनमे
शायद एक तलाश है
रिश्तो में इनकी
शायद एक चाहत है
बिखर जाने की
और शायद एक इन्तजार है
उस धरा का जो फैलाये दामन …
2 comments:
बहुत-बहुत सुन्दर है
शुक्रिया
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