माँ को नमन करते हुए कुछ पंक्तियाँ
हुयी बीमार
मिलने आई माँ
जो खुद लडखडाती रहती
घुटनों के दर्द की मारी
मेरा माथा सहलाती
हाथ पैर दबाती
डांटती रही मुझे
कुछ खाती पीती नही
अपने शरीर का ध्यान नही रखती
काम ,बच्चे और नेट बस
शरीर नहीं रहेगा कोई न पूछेगा
बगैरह बगैरह जाने क्या क्या कहती रही
मैं सुनती रहती हूँ
अच्छा लगता उनका बोलते जाना
क्युकी यही वो पल होता है
जब वो कुछ बोलती है अपने मन का
खुल कर
याद आते है वो दिन
जब पाला था खुद भूखे रह कर चार चार बच्चो को
पापा अक्सर काम से शहर से बाहर होते
बच्चो की पढाई ,बीमारी सबसे अकेली जूझती
घर के सारे काम अकेले निपटाती
कोई बच्चा बीमार पड़ जाये
बेखटकेअकेले सुनसान इलाके से गुजरती
रातो को लम्बी लाइनों बैठ डॉक्टर को दिखाती
रात रात भर जाग सेवा करती
सुबह फिर काम में जुट जाती
उस समय न गैस थे न कुकर
आज हम है सारी सुख सुविधा होते हुए भी परेशां रहते
कभी बच्चो पे चीखते है
कभी पति देव पर चिल्लाते है
नहीं है वो धैर्य हममे- बिना काम थके रहते
आज भरे पुरे परिवार वाली
सुख सुविधायो से परिपूर्ण घर वाली माँ
अब बीमार ज्यादा रहती है
पर उत्साह उमग में कोई कमी नही
बस भरे पुरे परिवार का अकेलापन कचोटता है कभी कभी
यहाँ कोई रिश्तेदार भी नही शहर बदलने के कारन
तो कभी किसी से फोन में बात कर
कभी मेरे पास आकर कोशिश करती है
कोई न मिला तो पिता जी पे झक झक कर
कभी मेरे पास आकर
कोशिश करती है
अपना बातो को बांटने की
अब नेट चलाना भी सीख लिया है
थोडा समय इधर बीता लेती है
कहीं जाना हो मुझे
बस एक काल करना होता है
चल पड़ती मेरे साथ लड़खड़ाते कदमो से
सोचते होंगे आप
कैसी स्वार्थी हूँ मैं
मैं सोचती हूँ ये सारे दिन झंझटो में उलझी रहती है
घर में बंधी रहती है किसी को जरुरत हो न हो
पर इन्हें लगता इनके बिना घर का काम न होगा
मंदिर जाने का ढकोसला पसंद नही
पार्क कोई साथ में जाता नही
इसलिए ले जाती घसीट घर से बाहर थोडा ताज़ी हवा खिलाने
घर वाले भी खुश
मैया भी बाहर निकल खुश
पर भ्रम न छोडती की इसके बिना घर न चलेगा
कोई भी माँ ये भ्रम नही छोडती ....
हुयी बीमार
मिलने आई माँ
जो खुद लडखडाती रहती
घुटनों के दर्द की मारी
मेरा माथा सहलाती
हाथ पैर दबाती
डांटती रही मुझे
कुछ खाती पीती नही
अपने शरीर का ध्यान नही रखती
काम ,बच्चे और नेट बस
शरीर नहीं रहेगा कोई न पूछेगा
बगैरह बगैरह जाने क्या क्या कहती रही
मैं सुनती रहती हूँ
अच्छा लगता उनका बोलते जाना
क्युकी यही वो पल होता है
जब वो कुछ बोलती है अपने मन का
खुल कर
याद आते है वो दिन
जब पाला था खुद भूखे रह कर चार चार बच्चो को
पापा अक्सर काम से शहर से बाहर होते
बच्चो की पढाई ,बीमारी सबसे अकेली जूझती
घर के सारे काम अकेले निपटाती
कोई बच्चा बीमार पड़ जाये
बेखटकेअकेले सुनसान इलाके से गुजरती
रातो को लम्बी लाइनों बैठ डॉक्टर को दिखाती
रात रात भर जाग सेवा करती
सुबह फिर काम में जुट जाती
उस समय न गैस थे न कुकर
आज हम है सारी सुख सुविधा होते हुए भी परेशां रहते
कभी बच्चो पे चीखते है
कभी पति देव पर चिल्लाते है
नहीं है वो धैर्य हममे- बिना काम थके रहते
आज भरे पुरे परिवार वाली
सुख सुविधायो से परिपूर्ण घर वाली माँ
अब बीमार ज्यादा रहती है
पर उत्साह उमग में कोई कमी नही
बस भरे पुरे परिवार का अकेलापन कचोटता है कभी कभी
यहाँ कोई रिश्तेदार भी नही शहर बदलने के कारन
तो कभी किसी से फोन में बात कर
कभी मेरे पास आकर कोशिश करती है
कोई न मिला तो पिता जी पे झक झक कर
कभी मेरे पास आकर
कोशिश करती है
अपना बातो को बांटने की
अब नेट चलाना भी सीख लिया है
थोडा समय इधर बीता लेती है
कहीं जाना हो मुझे
बस एक काल करना होता है
चल पड़ती मेरे साथ लड़खड़ाते कदमो से
सोचते होंगे आप
कैसी स्वार्थी हूँ मैं
मैं सोचती हूँ ये सारे दिन झंझटो में उलझी रहती है
घर में बंधी रहती है किसी को जरुरत हो न हो
पर इन्हें लगता इनके बिना घर का काम न होगा
मंदिर जाने का ढकोसला पसंद नही
पार्क कोई साथ में जाता नही
इसलिए ले जाती घसीट घर से बाहर थोडा ताज़ी हवा खिलाने
घर वाले भी खुश
मैया भी बाहर निकल खुश
पर भ्रम न छोडती की इसके बिना घर न चलेगा
कोई भी माँ ये भ्रम नही छोडती ....
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